मन,
सूक्ष्म विचारों मे खोया हुआ,
न जाने कहाँ कहाँ भ्रमण करता है.
कभी ये तुम्हे मेरे इतने करीब ला देता है,
की मैं अपनी साँसों को तुममे और,
तुम्हारी साँसों को अपने मैं पाता हूँ,
और कभी तुम मुझसे इतने दूर हो,
की मेरे लाख चिल्लाने के बाद,
बुलाने के बाद भी,
तुम मुझे नहीं सुनते और,
आँखों से ओझल हो जाते हो.
ये मन ही है जो कभी मुझको तुम्हारे रूप का,
अस्तित्व का बोध कराता है.
ये मन ही है जो मुझे तुमसे बांधे हुए है,
जो मुझे तुमसे जोड़ता है.
ये मन ही है जो मुझे अहसास कराता है की,
‘मैं’ ही ‘तुम’ हो और ‘तुम’ ही ‘मैं’ हूँ.
ये मेरा मन.
No comments:
Post a Comment