इकरार ही उनका नहीं था साकी,
शम्म भी महफिल मे जलने को थी राज़ी.
ये रजा है अब तेरी, हमें दफ़न करे या प्यार करे,
साहिलों के पार भी हमने देखा है साकी.
ये जुम्बिश, ये महफिल और ये तन्हाई,
अब तेरे ही आगोश मे टूटेगी साकी.
कि ख़त्म हो गयी जिस्त की, जो उसने पिलाई थी,
अब याराने मैं भी दो घूँट, पिला दे साकी.
कहते थे की मुद्दते हुए सावन बीते,
अब जाम उठा अश्कों का, और बरसता सावन तू देख साकी.
आदते भी भूल गया हूँ, इत्तेफाक में,
कि ज़िन्दगी इतनी नागवार गुज़री है साकी.
शब्-ऐ-बिसाल दे या शब्-ऐ-हिज्रा दे दे,
अब तेरे सिवा मेरा कोई नहीं है साकी.
कहता है मुझसे की संग-ऐ-दिल है वो,
ऐतराज़ करूँ में कैसे, कि कसम मय की तुने भी खाई है साकी.
उसकी आँखों में लिखी थी, जो मेरे प्यार की कहानी,
कहता है अश्को से, उसने मिटा दी साकी.
ज़िस्त: उधार, शब्-ऐ-बिसाल- मिलन, शब्-ऐ-हिज्रा- जुदाई
No comments:
Post a Comment