"TUM"
Saturday, December 4, 2010
बोलती तस्वीर...
दुबली पतली सी, एक हेंगर पर लटकी थी वो तस्वीर,
फ्रेम का तो पता नहीं था,
हाँ पर उसकी सारी हड्डिया बराबर ही नजर आती थी,
एक अपने ही जैसे पेड़ के आगोश में, खुद को छुपाने की कोशिश कर रही थी वो,
शायद उसको डर था की कहीं ये बारिश उसको भिगा ना दे,
नादान थी, समझ रही थी की वो अकेली है ऐसी,
खा-म-खा परेशान थी वो,
दीमक भी लगी थी उसको, कुछ दो - तीन अलग अलग तरह की,
जीवन का एक ही रंग नज़र आता था उस पर,
बस "काला"
बहुत थक गए थी, गरीबी की दीवार पर टंगे - टंगे,
इंतजार था तो उसको बस...
Sunday, February 28, 2010
क्या लिखूं...
आतंकवाद की कोई वेदना को व्यक्त करूँ,
या बंटते भारत की व्यथा लिखूं.
मंदिर की आरती या मस्जिद की अजान लिखूं.
बूढ़े माँ बाप की भीगी पलकों का इंतजार या बच्चे की मधुर मुस्कान लिखूं,
फिर से नया कोई प्रेम गीत लिखूं.
या ये सब बहाने है विषय तलाशने के, अपनी असहाय पड़ती कलम को छिपाने के,
क्योंकि
मेरे भाव अब खत्म हो गए हैं,
चलती फिरती लाशों के बीच में,
मैं मर गया हूँ और,
मेरी संवेदनाएं अपना वजूद तलाश रही है…
Thursday, January 14, 2010
मैं भयमुक्त नहीं...
कभी कभी मुझे भय होता है, पता नहीं क्यों,
पर शायद मैं उस स्तिथि मे, अभी नहीं, जहाँ मैं भयमुक्त हो सकूँ.
मैं भयमुक्त नहीं, क्योंकि तुम्हारा पूर्ण समर्पण,
तुम्हारे विचार,
तुम्हारा रंग, रूप, सौन्दर्य, समय,
तुम्हारी पूर्णता, सबकुछ, मैं अपने लिए चाहता हूँ.
मैं भयमुक्त नहीं, क्योंकि,
मैं जानता हूँ, कि तुम एक अलग अस्तित्व हो,
एक अलग व्यक्तित्व हो,
तुम्हारी अपनी मंजिल, अपनी राह है,
तुम्हारी अपनी आशाएं, उम्मीदे, अपनी चाह है.
मैं भयमुक्त नहीं, क्योंकि,
तुम्हारी पूर्णता “मैं” नहीं.
Sunday, December 20, 2009
सावन के कुछ पल तुम्हारे...
सावन के कुछ पल तुम्हारे, नाम मेरे तुम कर देना,
और उनके बदले में, चाहे जो तुम मुझसे ले लेना.
आँखों में मेरी गिरती है जो, हल्की हल्की बारिश लेना,
या फिर मेरे दिल से, प्यार की कोई सिफारिश लेना,
लेकिन,
सावन के कुछ पल तुम्हारे, नाम मेरे तुम कर देना.
हाँ तुम्हारी यादों के ही कुछ बादल है मेरे दिल में,
और दिल में धूप छाँव के कुछ है फेरे,
धूप मेरी, छाँव तुम्हारी, जब चाहो तब ले लेना,
लेकिन,
सावन के कुछ पल तुम्हारे, नाम मेरे तुम कर देना.
कुछ थमे से पल जिनसे, आँगन मेरा भरा पड़ा है,
कुछ बिखरी यादों में, चाँद हक़ जमाये खडा है,
सारे बिखरे रूप तुम्हारे, जब चाहो तब ले लेना,
लेकिन,
सावन के कुछ पल तुम्हारे, नाम मेरे तुम कर देना.
दिल का मेरे हिस्सा है, जो पल तुम्हारे पास है,
और उनमे तुम हो हमारे, ये चीज़ भी ख़ास है,
हर पल मेरी खुशियों का, जब चाहो तब ले लेना,
लेकिन,
सावन के कुछ पल तुम्हारे, नाम मेरे तुम कर देना.
Wednesday, December 16, 2009
अब मैं सिर्फ सच बोलता हूँ…
पहले जब तुम्हे मुझसे मोहब्बत थी,
मैं कभी कभी झूठ बोला करता था,
अब सिर्फ सच बोलता हूँ.
अब मैं सिर्फ सच बोलता हूँ,
अपने आप से,
क्योंकि अब तुम मुझे नहीं सुनती,
कोई ओर भी नहीं सुनता है.
अब मैं सिर्फ सच बोलता हूँ,
पर इस रिश्ते की शिथिलता के,
बारे में नहीं,
बल्कि साथ बिताई गर्म यादों के बारे में.
उन गर्म यादों के बारे में,
जहाँ तुम मेरा हाथ पकड़कर,
दुनिया के सामने मेरे साथ चलने की तैयार थी.
उन गर्म यादों के बारे में,
जहाँ तुम्हारी सुबह-शाम,
सिर्फ मैं हुआ करता था.
वो यादें जिनमें सपने थे साथ जीवन बिताने के,
ओर तुम्हारे प्यार की गर्माहट थी.
अब मैं सिर्फ सच बोलता हूँ,
क्योंकि अब मैं तुम्हे पहले से ज्यादा,
प्यार करने लगा हूँ.
Saturday, May 9, 2009
ज़िन्दगी…
ऐ ज़िन्दगी तू मुझसे मिलने आती क्यों नहीं?
मेरी तन्हाई को हमराह बनाती क्यों नहीं?
कि हमने भी मुस्कुराने का मौका दिया है, लोगो को,
रूठ के जाने को, तू फिर आती क्यों नहीं?
इस रिश्ते कि कब्र पर चढाया था, एक फूल मैंने भी,
तू आखरी सलाम देने, आती क्यों नहीं?
रस्म-ऐ-मोहब्बत है, रूठने मनाने कि,
तू इस रस्म को तोड़ने फिर आती क्यों नहीं?
तेरे दीदार को अटकी है, आखरी साँस मेरी,
इस साँस को तोड़ने तू आती क्यों नहीं?
तेरे बिस्तर मैं छुपे हुए कुछ, मेरे प्यार के आँसू,
उन आँसुओ को सुखाने, आती क्यों नहीं?
बच गया है मेरा जो अक्स, तेरे दिल के किसी कोने में,
उस अक्स को मिटाने अब आती क्यों नहीं?
ऐ ज़िन्दगी तू मुझसे मिलने आती क्यों नहीं?
मेरी तन्हाई को हमराह बनाती क्यों नहीं?
कर्तव्य…
जनवरी की कपकपाती ठंड,
और ट्रेन मे फल्ली/लाई बेचती,
महीन सा शाल ओढे हुई ब्रद्धा को देख,
अचानक ही मन उदास हो गया.
एक पल मे ही कितने प्रश्नों ने मुझे घेर लिया.
क्या मजबूरी है इसकी?
क्या इसका कोई नहीं?
क्या इसके बच्चे निक्कमे और नकारे है?
क्यों इतनी रात को,
इस तरह ये अपना काम कर रही है?
न चलने के बाबजूद पोटली लिए,
क्यों बार बार चक्कर लगा रही है?
किंचित ही मैं इन प्रश्नों का उत्तर पर सकूँ,
या ये कहिये कि मैं असमर्थ हूँ.
पर एक प्रश्न मैं आप से,
सभ्य समाज से करता हूँ,
क्या ऐसे ब्रद्धों को सुखद जीवन का अहसास हम करा सकते है?
क्या इनके प्रति हमारा कोई कर्तव्य है?